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आम की आधुनिक तरीके से खेती

  • 06/01/2024


आम भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय फल है। इसे फलों का राजा कहा जाता है। व्यवसायिक तौर पर इसकी खेती बड़ी लाभकारी है।पूरे भारत में इसकी खेती करीब 11 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे लगभग 95 लाख मैट्रिक टन फल प्रति वर्ष प्राप्त होता है। अधिक फलन एवं आय के लिए निम्नलिखित वैज्ञानिक प्रबंधन जरूरी है

किस्मों का चुनाव
आज भारत में कई किस्में उगायी जाती है। हर किस्म की अपनी अलग विशिष्टता होती है। आम की आदर्श किस्म वह है जिसके फल मध्यम आकार के (1 किलो में 4) हों तथा जिसके गुद्दा की गुणवत्ता सभी को भाये। फलों की गुठली पतली एवं छोटी हो। गूदा रेशारहित, सुवासित मीठा-खट्टा स्वाद के सुरुचिपूर्ण मेल से बना हो। किस्म के वृक्षों में हर साल फलने को प्रवृति हो तथा कीड़े, बीमारियों एवं अन्य व्याधियों के प्रति सहिष्णु है ऐसी आदर्श किस्म की पहचान एवं चयन आवश्यक है। वर्त्तमान में एक भी ऐसी किस्म नहीं हैं जो सभी गुणों से सम्पन्न हो। अत: उपलब्ध किस्मों से ही अपनी पसंद के अनुरूप अधिक उपज देने वाली किस्मों का चुनाव करें। कुछ अच्छी गुणवत्ता वाली किस्मों के नाम निम्नलिखित है।

मालदह, (लंगड़ा), सिपिया, सुकुल, दशहरी, बम्बई, चौसा, जरदालु, आल्फान्सी, फजली, कृष्णभोग, हिमसागर, गुलाबख़ास आदि। ऊपर लिखी किस्मों के अतिरिक्त बिहार में कुछ ऐसी किस्में हैं जिनके फल बहुत ही उच्च कोटि के हैं तथा काफी लोकप्रिय है जैसे जरदा, मिठुआ, पहाड़फर सिन्दुरिया आदि। समस्तीपुर जिले के पूसा प्रखंड में बथुआ नामक प्रभेद काफी क्षेत्र में उगाया जाता है। इसकी विशेषता यह है कि इसके फल काफी देर से पकते है तथा सबसे अंत में बाजार में आने के कारण अधिक कीमत पर बिकते है। इस किस्म की भंडारण क्षमता भी अधिक है।

पिछले दो दशकों में आम की कई संकर किस्मों का प्रादुर्भाव हुआ है। संकर किस्मों की प्रमुख विशेषता यह है कि इनमें हर साल फलने की प्रवृति पायी जाती है। अत: हर वर्ष फलन प्राप्त करने के लिए आप इन किस्मों का चयन कर सकते है। ये किस्में है – आम्रपाली, मल्लिका, रत्ना, सिन्धु, महमूद बहार, प्रभाशंकर, सबरी, जवाहर, अरका अरुण, अरका अनमोल, मंजीरा, सुंदर लंगड़ा, अफ्जली आदि।

मिट्टी
यों तो आम सभी प्रकार की मिट्टी में पैदा किया जा सकता है यदि इनमें पानी का निकास अच्छा हो। परन्तु सबसे उपयुक्त मिट्टी गहरी दुमट है जिसमें पानी का निकास अच्छा हो और पी.एच. मान 5.5 से 7.5 तक हो। कंकरीली, पथरीली, छिछली तथा अधिक क्षारीय मिट्टी में आम की बागवानी सफल सिद्ध नहीं होती और बहुत कम उपज मिलती है।

बाग़ का संस्थापन
बाग़ लगाने के लिए पहले खेत की अच्छी तरह जुताई कर लें एवं पाटा चलाकर समतल कर लें। अब वृक्ष लगाने की जगह की चिन्हित कर लें। सदैव आम की अच्छी किस्मों के कलमी पौधे लगाये। लगाने की दूरी 10 मी. x 10 मी. रखें एवं एक कतार में दो पौधों के बीच भी 10 मीटर की दूरी रखें। आम्रपाली नामक किस्म 2.5 मी. x 2.5 मी. की दूरी पर लगायी जा सकती है। चिन्हित जगह पर 90 से.मी. (3 फीट) की लम्बाई, 3 फीट चौड़ाई एवं 3 फीट गहराई वाला एक गढ़ा खोदें। खोदे गये सभी गढ़ों को ऊपर की आधी मिट्टी एक तरफ तथा निचले हिस्से को आधी मिट्टी दूसरे तरफ रखें। मिट्टी को 15-20 दिनों तक धूप लगने दें। गढ़ा खोदने का कार्य मई के प्रथम पक्ष में करें। भरते समय गढ़े की ऊपरी मिट्टी में 20-25 किलो कम्पोस्ट, 1 किलो खल्ली एवं 50 ग्राम थीमेट मिलाकर इस मिश्रण को गढ़े में डालें। तत्पश्चात यदि गढ़े में और मिट्टी डालने की आवश्यकता पड़े तो गढ़े से खोदी गयी निचली मिट्टी का इस्तेमाल करें एवं इसी मिट्टी से थाला बनालें। एक दो वर्षा के बाद जब गढ़े में भरी गयी मिट्टी पूर्णत: बैठ जाय पौधों की रोपाई करें। वृक्ष रोपण का कार्य साधारणत: जुलाई अगस्त में किया जाता है जबकि वातावरण में काफी नमी रहती है। फरवरी-मार्च में भी पौधे लगाये जा सकते है परन्तु इनमें उतनी सफलता नहीं मिलती जितनी वर्षा ऋतु में लगाये हुए पौधों में। फरवरी-मार्च में लगाये गये पौधों को अधिक पानी देने की आवश्यकता होती है तथा इन्हें लू से बचाने का भी उचित प्रबंध करना आवश्यक होता है। वृक्ष रोपण बादल वाले दिन या संभवत: शाम के समय करना चाहिए जबकि तेज धूप न हो।

पौधा लगाते समय जड़ों के पास मिट्टी के गोले से लिपटी हुई घास या टाट के टुकड़ों या पोलिथीन की थैली को हटा देना चाहिए तथा यह ध्यान देना चाहिए कि ऐसा करते समय जड़ों को क्षति न पहुंचे। पौधा लगाते समय ध्यान दे कि पौधे को मिट्टी में उतना ही दबाना है जितना कि वह नर्सरी में रखते समय मिट्टी में दबाया गया था। चश्मा या कलम के जुड़ाव का स्थान भूमि तल से करीब 22 सें.मी. (10 इंच) अवश्य ऊपर रहना चाहिए। पौधा लगाने के बाद मिट्टी को अच्छी तरह दबा देना चाहिए और सिंचाई करनी चाहिए।


सिंचाई
वृक्षों को गर्मी में सिंचाई देना आवश्यक होती है। प्रारंभिक अवस्था में थाला बनाकर थालों को नालियों द्वारा जोड़कर सिंचाई करना चाहिए। वृक्ष जब बड़े हो जायें तो पूरे खेत की सिंचाई की जा सकती है। फूल लगने से दो माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए। फूलों में जब फल लग जाए और मटर के दाने के बराबर हो तब सिंचाई करना चाहिए। सिंचाई करने से फलों का गिरना कम हो जाता है।

बीमारी एवं कीड़े
आम के वृक्षों में मंजर लगते समय या इसके पूर्व कई प्रकार के कीड़ों और बीमारियों का प्रकोप होता है। इनसे पौधों एवं फलों को बचाना आवश्यक है। कीड़ों में मधुआ, दहिया, एवं फल मक्खी का प्रकोप आम तौर पर होता है। बीमारियों में कज्जली फफूंदी, उकठा रोग एंथ्रक्नोज और चूर्णों फफूंदी का प्रकोप बहुधा देखने को मिलता है। कीड़ों एवं बीमारियों के प्रकोप से वृक्षों पर फल नहीं टिकते और बहुत कम उपज प्राप्त होती है। कई बार मंजर ही नहीं निकलते।

मधुआ के नियंत्रण हेतु मंजर निकलते समय रोगर या थायोडॉन (35 ई.सी.) दवा का 30 मि.ली. 30 लीटर पानी में मिलाकर प्रति पेड़ की दर से तीन बार छिड़काव करें। पहला छिड़काव फूल निकलने से पूर्व या मंजर निकलते समय, दूसरा फूल खिलने के पहले एवं तीसरा दूसरे छिड़काव से एक महीने के बाद करें। इस दवा का प्रयोग करना सुरक्षित होगा अगर आस-पास मधुमक्खियों के छत्ते नहीं हो तो रोगर (30 ई.सी.) दवा का 30 मिली लीटर, 30 लीटर पानी में मिला कर प्रति पेड़ की दर से छिड़काव करें। दहिया के नियंत्रण के लिए मेथाईल पाराथिमान 2 प्रतिशत धूल का 5 किलो प्रति वृक्ष की दर से पेड़ के चारों तरफ मिट्टी में दिसम्बर माह के प्रारंभ में मिलावें। जमीन की सतह से 100 सें.मी. ऊपर लगा दें। ऐसा करने से पेड़ पर चढ़ने वाले कीड़े सटकर मर जाते हैं। यदि लेप उपलब्ध नहीं हो तो सेलोटेन कागज या अलकाथिन की 20-25 सें.मी. चौड़ी पत्ती लपेट दें तथा इसके दोनों तरफ गीली मिट्टी से लेप दें ताकि कीट शिशु ऊपर न चढ़ पायें। फल मक्खी के नियंत्रण हेतु मालाथिआन नामक दवा 50 मि.ली. को 50 ली. पानी में घोलकर अप्रैल से मई के बीच 15-20 दिनों के अंतर पर तीन-चार बार छिड़काव करें। बीमारियों से बचाव के लिए धुलनशील गंधक के 2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। उकठा रोग के नियंत्रण हेतु जिनबे 0.2 प्रतिशत या बोर्डो मिश्रण (4:4:50) का प्रयोग करना चाहिए। एंथ्रोक्नोज से बचाव हेतु साफ़ या कम्पेनियन नामक दवा 0.2 प्रतिशत घोल इस्तेमाल करें।

फलन एवं उपज
उपज में द्विवार्षिक फलन की समस्या पायी जाती है। एक वर्ष वृक्ष में अधिक फलते है तो अगले वर्ष बहुत कम। यह समस्या अनुवांशिक है। अत: इसका कोई बहुत कारगर उपाय नहीं है। विगत वर्षो में आम को कई संकर किस्में विकसित हुई है। जो इस समस्या से मुक्त है अत: प्रति वर्ष फल लेने के लिए संकर किस्मों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

आम के वृक्ष चार-पाँच साल की अवस्था में फलना प्रारंम्भ करते है और 12-15 साल की अवस्था में पूर्ण रूपेण प्रौढ़ हो जाती है अगर इनमे फलन काफी हद तक स्थायी हो जाती है। एक प्रौढ़ वृक्ष से 1000 से 3000 तक फल प्राप्त होते है कलमी पौधे अच्छी देख-भाल से 60-70 साल तक अच्छी तरह फलते है।

आम का अनियमित फलन
आज राज्य में फल उत्पादन के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र का आधा भाग केवल इसी फल से परिपूर्ण है। राज्य के हर हिस्से में आम के छोटे-बड़े बाग़ मिलते हैं तथा इनमें कई किस्मों के आम पाये जाते है। यों तो आम के पौधे प्रारंम्भ में नियमित रूप से प्रति वर्ष फल देते हैं पर 9-10 वर्ष की अवस्था आते-आते उनका फलन अनियमित हो जाता है यानि उनसे प्रति वर्ष फल की प्राप्ति नहीं होती। अब यदि किसी वर्ष आम की भरपूर फसल मिलती है तो उससे अगले वर्ष वृक्ष बिल्कुल नहीं फलते और फिर दो वर्षो के अंतर से फलने का प्राय: एक निश्चित क्रम बन जाता है। इस क्रम को आम का ‘द्विवार्षिय या द्विवार्षिक’ फलन की संज्ञा दी जाती है। यह क्रम सभी जातियों (किस्मों) तथा एक ही जाति के सभी वृक्षों में एक-सा नहीं होता। बाग़ के रखरखाव में निरंतर लापरवाही के कारण दो फलन के बीच का यह समय दो वर्ष न होकर कभी-कभी तीन वर्ष भी हो जाया करता है और तब द्विवार्षिक फल की संज्ञा कुछ असंगत-सी जाँ पड़ती है। पुन: उचित देख-भाल और प्राकृतिक अनुकूलता के कारण यदा-कदा कुछ ख़ास अवधि के लिए यह अंतर मिट भी सकता है और वृक्षों से लगातार सामान्य फल मिल सकते हैं। अत: आम के फलने की क्रिया को द्विवार्षिक के वजाय अनियमित कहा जाना अधिक सार्थक प्रतीत होता है।

अब प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा होता क्यों है? इस प्रश्न की जटिलता का आभास इसी से मिलता है कि वैज्ञानिकों द्वारा कई वर्षो के सतत प्रयास के बावजूद अबतक इसका वास्तविक हल नहीं खोजा जा सका है। वैसे अबतक सम्पन्न खोजों के निष्कर्षो के आधार पर इसे समझने में काफी मदद मिली है और यहाँ इन्ही तथ्यों के आधार पर इसकी व्याख्या की गयी है और समाधान के उपाय सुझाए गये हैं।

पौधा लगाने के बाद आम का ग्राफ्ट (कलम) 4-5 वर्षो में फलना शुरू करता है। यदि कोई विशेष प्राकृतिक प्रकोप नहीं हुआ तो अगले 4-5 वर्षो तक वह प्राय: हर वर्ष मंजर देता है और फल भी। यदि किसी वर्ष किसी कारण से बहुत अधिक फल लग जाय या सभी मंजर अल्प विकसित फलों के साथ झड़ जाय तो उसके बाद पौधों के फलने का क्रम बदल जाता है और अनियमितत: शुरू हो जाती है। प्रारंभिक अवस्था में नियमित रूप से फल लगने का कारण प्रतिवर्ष संतुलित मात्रा में नये प्ररोह (कोमल पत्तों से युक्त नयी डालियाँ) देने तथा फूल संवहण करने की क्षमता है। बाद के वर्षो में यह संतुलन कायम नहीं रह पाता और समस्या शुरू हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि अनियमित फलने वाली किस्में जब फलों से लदी होती है तो नये प्ररोह नहीं फेंकती। फल तोड़ने के बाद भी नये प्ररोह नगण्य मात्रा में आते हैं और जो आते भी हैं उनमें अगले साल फूलने की क्षमता नहीं रहती। पूर्ण रूप से नये प्ररोहों का प्रादुर्भाव अगले साल के वसंत ऋतु में ही होता है और ये प्ररोह वर्तमान साल में न फूलकर अगले साल में फूलते हैं। अत: बीज में एक और साल का अंतर हो जाता है जो द्विवार्षिक या अनियमित फल का कारण बनता है। बहुत से वैज्ञानिक ऐसा सोचते है कि यदि पेड़ में प्ररोह जल्द निकल जाय और नवम्बर तक परिपक्व हो जाये तो इनके फूलने की संभावना अच्छी रहेगी। पर हाल के खोजों से यह ज्ञात हुआ है कि वास्तव में प्ररोह की परिपक्वता इस सिलसिले में कम महत्व रखती है। यथार्थ में यदि पेड़ फूलने की दशा में हों तो प्ररोह कुछ ही महीने के हों या बिल्कुल नये हो या न भी हो तो भी पेड़ में फूल आ सकता है। पेड़ पर लगे फलों का भार प्ररोहों के फूलने की संभावना के लिए उत्तरदायी होता है।

मंजरों में नर तथा उभयलिंगी (द्विलिंगी) फूलों का अनुपात भी वृक्षों के फलने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। चूँकि उभयलिंगी फल ही उचित परागण और निषेचन के बाद फल देते हैं जिन किस्मों के मंजरों में इन फूलों की संख्या अधिक होती है – ऐसा देखा गया है कि वे फलने में ज्यादा अनियमित होती है। अधिक उभयलिंगी फूलों के कारण किसी वर्ष तो ऐसी किस्मों के वृक्ष इतना अधिक फल दे जाते हैं कि फलों की तुड़ाई के बाद उनके प्ररोहों की आंतरिक रसायनिक संरचना में असंतुलन पैदा हो जाता है और अगले वर्ष ये प्राय: फूल या फल देने योग्य नहीं रह पाते। ‘लंगड़ा’ और ‘दशहरी’ के मंजरों में उभयलिंगी फूलों की संख्या क्रमश: 69 और 31 प्रतिशत है। ये किस्में फलने में अधिक अनियमित पायी गयी है। दूसरी ओर किस्मों में ऐसे फूलों की संख्या कम पायी जाती है जैसे – नीलम (16 प्रतिशत), आलमपुर वनिशान (3 प्रतिशत), जहाँगीर (1 प्रतिशत), वे प्राय: प्रतिवर्ष फलती है। इन किस्मों में कम फल लगने की क्रिया ही इनके नियमित फलन के लिए उत्तरदायी है। फिर ऐसा भी देखा गया है कि जिन किस्मों में अग्रवर्ती पुष्पक्रम (मंजर) की अधिकता रहती है वे कक्षवर्ती पुष्पक्रमों की अधिकता वाली किस्मों की उपेक्षा अधिक अनियमित फल देती है। चूँकि हमारे यहाँ की सभी श्रेष्ठ किस्मों में अग्रवर्ती पुष्पक्रमों क संख्या अधिक रहती है वे प्रति वर्ष सामान्य रूप से नहीं फलती। पुन: अनियमित फलन वाली किस्मों के पुष्पक्रम शुद्ध होते हैं अर्थात उनमें केवल फूल ही रहते हैं – साथ में पत्तियाँ नहीं होती। ‘फजली’ के पुष्पक्रमों में पत्तियाँ भी रहती है। अत: यह प्रति वर्ष फल देती है। ऐसी पत्तियों की संख्या ‘बारहमासी’ में बहुत अधिक होती है और यह किस्म साल में दो बार फलती है। सारांश यह कि पुष्पक्रम या मंजर के साथ पत्तियों का होना या न होना भी अगले वर्ष के फलन पर प्रभाव डालता है।

यह प्राय: देखा जाता है कि वैसी किस्में जिनके फल आकार में बड़े एवं गुणवत्ता में उत्तम होते हैं जैसे – मालदह, दशहरी, जरदालू आदि वैसी किस्में जिनके फल छोटे एवं गुणवत्ता में निम्न स्तर के होते हैं जैसे – छोटे फल वाल बीजू आम की अपेक्षा फलने में अधिक अनियमित होते हैं। अनियमित फल की तीव्रता वंशानुगत कारणों एवं वातावरण के मिश्रित परिणाम से बढ़ या घट सकती है। आमतौर पर यदि कोई किस्म एक साल बहुत अच्छी तरह फल देती है तो दूसरे साल वह उसी अनुपात में बहुत कम फल देगी या बिल्कुल फल रहित हो जायेगी। अत: वैसी किस्में जो कम फलती है साधारणतया नियमित होती है। ऐसी किस्मों में नीलम, बनिशान, फजली इत्यादि प्रमुख है। वैसी किस्में जो टूटकर फलती है (यानि बहुत अधिक फलती है) वे अनियमित होती हैं जैसे – लंगड़ा, दशहरी, बम्बई आदि।

परीक्षणों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि यदि एक डाली पर 30 पत्तियाँ हों तो वे फलने वाले साल में एक फल को शुरू में अंत तक (फल लगने से लेकर उसके पूर्ण विकास तक) अनुपोषित नहीं कर पातीं। एक फल को पूरी तरह विकसित होने के लिए किस्म विशेष के अनुसार 60-90 स्वस्थ पत्तियों की आवश्यकता पड़ती है यदि उनके संपालन (पोषण) हेतु खुराक वर्त्तमान प्रकाश संश्लेषण से आनी हो। चूँकि ऐसा सदैव संभव नहीं होता, फल बढ़ने के लिए डालियों में संचयित खुराक का बड़ी मात्रा में उपयोग करते हैं। परिणामस्वरूप फलने वाले वर्ष में वृक्ष पूर्णतया शक्तिविहीन हो जाते है। अगले वर्ष यही वृक्ष न फलकर शक्ति संचय करते हैं और फलने और न फलने का क्रम चलता रहता है।

ऊपर वर्णित कारणों के अलावे वृक्षों का फलना अन्य कई बातों पर निर्भर करता है जैसे – किस्मों की अपनी विशेषताएं, फूलने का समय और मौसम की अनुकूलता, पर-परागण की क्षमता, छोटे फलों का गिरना आदि। उत्तर भारत की प्रमुख किस्में जैसे लंगड़ा, दशहरी, चौसा आदि स्वअनिषेच्य है।अत: फलने के लिए इनमें पर-परागण अति आवश्यक है। देश में पैदा की जाने वाली अन्य किस्मों के लिए भी पर-परागण का योगदान अति महत्वपूर्ण है। यह क्रिया कीड़ों द्वारा विशेषकर मक्खियों से सम्पन्न होती है। फूलने के समय प्रतिकूल मौसम (वर्षा, बादल युक्त आकाश, तापक्रम का तेजी से बढ़ना-घटना ओला आदि) फूलों को झड़ने में बढ़ावा देता है तथा पर-परागण के लिए उत्तरदायी कीड़ों की गतिविधियों को रोकने में सहायक होता है। जिससे वृक्षों पर फलों की संख्या न्यून हो जाती है। छोटे और विकसित हो रहे फलों का अधिक मात्रा में गिरना भी समस्या उत्पन्न करता है। कीड़े (हॉपर तथा मिली बग) एवं बीमारियों (चुर्णा फफूंदी एवं एंथैक्नोज) के प्रकोप से तथा गर्म हवा के झोंकों से फूल तथा फल दोनों गिरते हैं। एक पुष्पक्रम पर बहुत अधिक फल लगते हैं पर पोषक तत्वों के लिए आपसी प्रतियोगिता के कारण बहुत थोड़े ही फल विकसित हो पाते हैं। अत: फलों का गिरना यदि एक नियत सीमा के अंदर हो तो यह स्वाभाविक है अन्यथा दो फलन के बीच के अंतर को बढ़ाने में कदाचित यह सहायक सिद्ध हो सकता है।

हर वर्षफलन के अनुकूल सभी परिस्थितियाँ नहीं होती, क्योंकि मिट्टी और विशेषकर जलवायु में परिवर्तन होता रहता है। फिर बहुवर्षी वृक्ष होने के कारण, आम के वृक्ष पर इन सबका तत्कालीन तथा दीर्धकालीन प्रभाव भी पड़ता है। परिणामत: हर वर्ष तथा हर वृक्ष (चाहे वे एक ही किस्म के क्यों न हों) का फलन अलग-अलग ढंग से होता है। चूँकि आम में फलन की जटिल समस्या अनके प्रभावों का सम्मिलित परिणाम है, इसके निराकरण के लिए किसी एक उपाय का अपनाया जाना एक असफल प्रयास साबित हो सकता है। अत: उत्पादकों को चाहिए कि वे समाधान की दिशा में निम्नलिखित सुझाव अपनाये और वृक्षों से अपेक्षित फल प्राप्त करें:

पेड़ों को हमेशा उचित देख-भाल से अच्छी हालत में रखें। उपयुक्त समय पर सिंचाई, खाद, खर-पतवार निकालना, कीड़ों तथा रोगों का नियंत्रण आदि पेड़ों में फलन को सुनिश्चित करता है। इन क्रियाओं से अनियमित फलन पूर्ण रूप से तो नहीं रोका जा सकता पर इसके असर को कम किया जा सकता है। पौधा लगाने से लेकर पहला मंजर निकलने तक खाद-पानी देने में इस बात का ध्यान रखें कि मार्च तक काफी पानी दिया जाय और सितम्बर से दिसम्बर तक एक दम नहीं। खाद केवल जून-जुलाई में दें। मंजर निकलने पर फूल या फल लगते वक्त पानी न देकर अप्रैल-मई में काफी सिंचाई करें। जाड़े में एकदम नहीं। बरसात में अगर वर्षा नहीं हो तो सिंचाई की व्यवस्था करें। शुरू से भी बाग़ की तीन जुताई अर्थात पहली वर्षा के साथ जून में, वर्षा के ठीक बाद अक्टूबर में, तथा वसंत के आरंभ यानि जनवरी में अवश्य करें। इससे बहुत लाभ होता है। मंजर आने के बाद खाद देने का तरीका थोड़ा बदल जाता है। यदि मंजर कम मात्रा में आये हों तो उस वर्ष जून-जुलाई में प्रति प्रौढ़ वृक्ष (20 वर्ष), 1 किलोग्राम यूरिया तथा आधा किलोग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश का व्यवहार करें। फिर सितम्बर-अक्टूबर में 50-60 किलो कम्पोस्ट, दो किलो सिंगल सुपर फास्फेट तथा आधा किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश डालें। जिस वर्ष मंजर अधिक आये उस वर्ष यूरिया 2.5 किलोग्राम दें और अन्य उर्वरकों की मात्रा पूर्ववत ही रखें।
वृक्षों पर लगने वाले कीड़े तथा बीमारियों की रोकथाम के लिए समयोचित उपयुक्त दवाओं का छिड़काव जरूरी है। मधुआ (हॉपर) के लिए फूल आने के पूर्व रोगर (0.1 प्रतिशत) का प्रयोग करें एवं मिली बग की रोकथाम के लिए फूल आने से पहले तने के आसपास अल्काथीन बैंड का प्रयोग करें।
पैक्लोब्युट्रांजोल नामक रसायन जो बाजार में “कल्टार” नाम से मिलता है का प्रयोग आम के फल को नियमित करने में लाभकारी होता है। इसका प्रयोग सितम्बर के अंत या अक्टूबर महीने में करना चाहिए। इस रसायन की मात्रा वृक्ष की आयु एवं उसके डालियों के फैलाव के मुताबिक़ तय की जाती है। वृक्ष के फैलाव घेरे के ब्यास को ध्यान में रखते हुए दवा इस्तेमाल करने की अनुशंसा की गयी है। वृक्ष के फैलाव घेरा का ब्यास यदि 5 मीटर होगा तो 15 मि.ली. दवा की आवश्यकता पड़ेगी। यानि प्रति मीटर व्यास के लिए 3 मि.ली. दवा आवश्यक होती है। दवा की सही मात्रा वृक्ष के जड़ क्षेत्र में समानरूप से व्यवहार करना चाहिए। इसके लिए वृक्ष के चारो ओर 4-10” गहरा छेद बना लेना चाहिए और उसी छेद में दवा की वांछित मात्रा डालनी चाहिए। दवा को पानी में घोलकर उसकी मात्रा बढ़ायी जा सकती है। इससे व्यवहार करने में सुविधा रहती है। यह दवा वानस्पतिक वृद्धि रोकता है और वृक्षों को न फलनेवाले वर्ष में भी फलधारण करने के लिए प्रेरित करता है।
ऐसा पाया गया है कि यदि पेड़ की कुछ शाखाओं से फूल आरंभ में ही तोड़ दिया जाय और शेष को यूँ ही छोड़ दिया जाय तो वे शाखायें जिनका फूल तोड़ दिया गया है दूसरे साल फल देने में समर्थ होती हैं। जिन शाखाओं के फूल नहीं तोड़े जाते वे वर्तमान साल में फल देती हैं। इस प्रकार वृक्षों को प्रतिवर्ष फल देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, और प्रति वर्ष फल प्राप्त किये जा सकते हैं। पेड़ों की इकाई मानकर इस क्रिया को किया जाना चाहिए। फूलों को आंशिक रूप से झाड़ने के लिए एन.ए. ए. नामक रसायन का छिड़काव वृक्षों की अवस्था एवं फैलाव के मुताबिक़ 100 से 1`50 पी.पी.एम. की दर से करनी चाहिए। छिड़काव वृक्षों पर पूरा फूल निकलने के बाद ही करना चाहिए।
ऑक्सीन सदृश पदार्थो और तत्वों की मौजूदगी प्ररोहों में फूल विभेदन के लिए आवश्यक पाया गया है। अत: इनका छिड़काव पौधे के लिए लाभदायक होता है। जिस वर्ष फूल न आवें उस वर्ष जी.ए. 300 पी.पी.एम. का छिड़काव अक्टूबर के महीने में करें। यह उपचार नियमित फलन में सहायक होगा।
वैसी किस्में जो प्रति वर्ष फल देती है। जैसे – नीलम और बंगलौर आदि को अधिक लोकप्रिय बनाने का प्रयास करना चाहिए। हाल ही में आमों के कुछ संकर जो नियमित फलने वाली किस्मों और श्रेष्ठ अनियमित किस्मों के संकरण से प्राप्त हुए हैं, लगाना चाहिए। इन किस्मों में मल्लिका, आम्रपाली, महमूद वहार, प्रभासंकर, राजेन्द्र आम नं.2, जवाहर, रत्ना, सिन्धु, सुवर्णजहाँगीर आदि प्रमुख है। इनमें आमतौर पर प्रतिवर्ष फल देने की क्षमता है।
पौधा लगाते समय कई जातियो के पौधे एक ही बाग़ में लगायें,लेकिन सिलसिलेवा, ताकि परागण समुचित ढंग से हो सके। बाग़ के उत्तरी तथा पश्चिमी किनारों पर, बाग़ लगाने के साथ-साथ, जामुन, बीजू आम, शहतूत, कटहल आदि के वृक्ष कुछ कम दूरी पर लगाना न भूलें। इससे तेज हवा का प्रभाव कम हो जाता है।
विगत में अनुसंधान द्वारा टहनियों के प्रत्यारोपण से भी फल को नियंत्रित करने में सफलता मिली है। इसके लिए अनियमित फलन वाली किस्मों (जैसे – लंगड़ा, दशहरी, अलफैंजों, तोतापरी आदि) की चुनी हुई डालियों की पत्तियाँ तोड़कर हटा दी जाती हैं तथा इन डालियों पर नियमित रूप से फलने वाली किस्म की पत्ती सहित डालियाँ प्रत्यारोपित कर दी जाती हैं। इस प्रत्यारोपण के फलस्वरूप डालियाँ फलने में समर्थ होती हैं। ऐसा समझा जाता है कि अनियमित फलन वाली किस्मों की पत्तियों की आंतरिक रसायनिक संरचना न फलने वाले वर्ष में कुछ इस प्रकार की होती है कि वे मंजर निकलने की क्रिया को बाधित करती है। अत: जब उन्हें तोड़कर हटा दिया जाता है और उस डाली पर फलने वाली किस्म की एक शाखा प्रतिरोपित कर दी जाती है तो फलन के लिए अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है और मंजरों का प्रादुर्भाव होता है। यहाँ फलने वाली किस्म की पत्तीदार डालियाँ एक उत्प्रेरक का कार्य करती है और न फलने वाली डालियों को फलन के लिए उत्प्रेरित करती हैं। यह उत्प्रेरण या उत्सर्जन फलने वाली किस्म की पत्तियों में वर्त्तमान ऐसे रसायनिक तत्वों के कारण संभव हो पाती है जो फूलने और फलने के लिए आवश्यक समझी जाती है। इन तत्वों की सही पहचान अब भी अनुसंधान का विषय है, परन्तु यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रतिवर्ष फलने वाली किस्मों की पत्तियों में वर्त्तमान इन तत्वों का व्यवसायिक लाभ डालियों के प्रत्यारोपण से फलन को नियंत्रित करने में मिल सकता है।

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